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उपनयन संस्कार

 11  - उपनयन संस्कार  - उपनयन यानि यगोपवित (जनेऊ)धारण करना अत्यंत पवित्र होता है। इससे आयु बलतेज प्राप्त होता है।गर्भ से आठवें वर्ष या 11 वर्ष सूत का पास से बना जनेऊ धारण करना चाहिए।इसके बाद कटी सूत्र (मेखला) भी कटी कमर के चारों ओर, तीन लड़ी वाला बांधे। इसे तागड़ी भी कहते है।

मुंडन संस्कार

 9 -  मुंडन संस्कार ( चूड़ाकर्म संस्कार) मस्तिष्क को सबल और स्वच्छ बनाने के उद्देश्य से किया जाता है ।जन्म के साथ उत्पन्न बालों को 1 वर्ष होने पर या तीसरे या पांचवें वर्ष, कटवाने पर यह संस्कार सम्प्पन होता है।

अन्न प्राशन संस्कार

 8 - अन्नप्राशन संस्कार  -          महर्षि सुश्रुत अनुसार, शिशु को छठे मास के आरंभ में, लघु पोस्टिक आहार देना शुरू कर देना चाहिए। क्षीर अमृत समान है।चांदी के बर्तन में परोसे।

निष्क्रमण संस्कार

 7 -  निष्क्रमण संस्कार       नामकरण संस्कार के दूसरे दिन अथवा चौथे मास शुभ मुहूर्त में (चंद्रमा, नक्षत्र,वार आदि) शुभ देखकर बालक को साथ ले,माता अथवा माता-पिता दोनों, मां अपने पिता के घर मायके जाए ।

नामकरण संस्कार

 6  - नामकरण संस्कार  -    दसवीं रात्रि के बाद 11 वे दिन नामकरण करें (चरक)। नाम तीन पुस्तों -पिता, पितामह,प्रपितामह के कुछ अक्षरों या अर्थ से मिलता-जुलता हो। नाम दो या चार अक्षर वाला हो।नाम दो हो -एक नक्षत्र राशि वाला, दूसरा घरेलू, जो अच्छा लगे, रखें।चरक संहिता।।

रक्षा कर्म

 5 - रक्षा कर्म - 10- 12 दिन तक ,प्रसूति गृह को साफ सुथरा,जीवाणु रहित, सुगंधित कर, शिशु व माँ की,अशुभ ग्रह राक्षस पिशाच भूत प्रेत से रक्षा करें।

जातकर्म संस्कार

 4 - जात कर्म संस्कार    -   जन्म के पश्चात अशुद्धि दूर करें तथा घी-सेंधव से मुँह साफ करें। आयु बल बुद्धि वर्धक - कल्याण घृत,ब्राह्मी घृत,त्रिफला आदि का भी प्रयोग करें।

सीमन्तोन्नयन संस्कार

 3 - सीमंतोननयन संस्कार  -   पांचवे महीने( 21 सप्ताह) में, गर्भ में कुछ खास परिवर्तन होते हैं।इसी समय गर्भ का ह्रदय, अपना कार्य शुरू कर देता है।गर्भनि पौष्टिक आहार करें, खुश रहे।

संस्कार किसे कहते

 16 संस्कार    -                        संस्कार   -  संस्कार से बल प्रतिष्ठा और शोभा बढ़ती है।संस्कृत व्यक्ति का व्यक्तित्व गुणवान व तेजस्वी होता है।जन्म और मृत्यु के पड़ाव तक, प्रायः 16 बार ऐसे समय आते हैं जब शरीर को समय अनुसार श्रेष्ठ और सबल बनाने के लिए, कुछ कर्म किए जाते हैं। उस समय के इन कर्मों को संस्कार कहते हैं।व्यास स्मृति के प्रथम अध्याय में, गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक के सोलह संस्कार का वर्णन विस्तार से हुआ है। 1 - गर्भाधान संस्कार। श्रेष्ठ गर्भाधान के लिए 18 वर्ष की आयु की स्त्री व 25 वर्ष की आयु के पुरुष, सांय काल, शुभ नक्षत्र आदि में, ऋतु के बाद,ग्यारहवे से सत्रहवें दिन में, संस्कृत हो, संभोग करें। 2 - पुंसवन संस्कार      -                          पुत्र ही हो,इसके लिए जो संस्कार किया जाता है, उसे पुंसवन संस्कार कहते हैं।गर्भधारण के 60 दिन के अंदर,विशेषकर 42 दिन से पहले पहले, मोर पंख, वट शङ्गु या केसर ...

आत्मा क्या है

 आत्मा  -  अनादि, अव्यक्त,नित्य, ज्ञानी और व्यापक है,जो चेतना धातु से जानी जाती है।आत्मा परमात्मा का ही प्रभाव या प्रकाश या उर्जा कहिए ।यह 24 तत्व के इस शरीर को चेतना देती है ।आत्मा कण-कण में समाई होती है जैसे सूर्य (परमात्मा)का प्रकाश (आत्मा)कण-कण में मौजूद होती है।आत्मा एक या अनेक नहीं,यह तो परमात्मा की एक ऊर्जा यानि शक्ति रूप है, जो इस पूरे ब्रह्मांड में आच्छादित है।जहां कही जीवन योग्य 24 तत्व होते हैं, वह इसके प्रभाव से चेतन हो,जीवन शुरू कर देते हैं अन्यथा नहीं।

परमात्मा क्या है

 परमात्मा या भगवान या अल्लाह -   परमात्मा सबका मालिक और एक है। अनादि,अव्यक्त, नित्य व ज्ञानी है। तथा बृह्मांड को रचने वाला,हर जीव को कर्म फल देने वाला, सर्वशक्तिमान और पूजनीय है।

आयुर्वेद क्या है

 आयुर्वेद    -  (आयु का ज्ञान कराने वाला वेद)-  इन चारों वेदों का उपवेद है। विशेष रूप से ऋग्वेद और अथर्ववेद का वर्णन इस वेद आयुर्वेद यानी आयुर्विज्ञान में है। यह आत्मा परमात्मा और संपूर्ण चिकित्सा स्वास्थ्य और हितकर तथा अहितकर आहार विहार का ज्ञान कराता है।तंत्र मंत्र,शाप -अभिशाप, जादू टोने,भूत-प्रेत,पिशाच राक्षस आदि को , मानसिक और संक्रमिक रोग मानकर,तथ्यों के आधर पर,तर्कसंगत पूर्वक समझाया गया है। अंधविश्वास  और पाखंड को कोई जगह नहीं दी गई। शरीर का कोई अंग-प्रत्यंग ऐसा नही जिसका वर्णन आयुर्वेद में,आधुनिक चिकित्सा जगत से अधिक विस्तार में न हो। एलोपैथ में शरीर मे 206 हड्डी का वर्णन है जबकि आयुर्वेद 300 बताता है।

कर्ण वेद संस्कार

 10   - कर्णवेध संस्कार   -   सुश्रुत अनुसार,रक्षा और आभूषण धारण धारण करने के उद्देश्य से कान भेदे जाते हैं। ग्रह बाधा का भी भय नष्ट हो जाता है,यह कर्म जन्म से,तीसरे या पांचवें वर्ष पुष्य, श्रवण या रेवती नक्षत्र में प्रातः काल करना चाहिए, शुक्ल पक्ष इस कर्म के लिए प्रशस्त होता है,पुत्र का पहले दाया पुत्री का बाया कान भेदे ।

वेदारम्भ संस्कार

 12  -  वेदारम्भ संस्कार  -उपनयन संस्कार संपन्न होने पर, उस दिन ही आरंभ कर सकते हैं या 3 दिन बाद।वेद अध्ययन का यह संस्कार,मनुष्य को, उन्नति,सम्पनता, यश, सामाजिक,राजनीतिक व आध्यात्मिक सफलता प्राप्त करता है।

श्रोता धन संस्कार

 15 - श्रोता धान संस्कार -        (सन्यास आश्रम)इस संस्कार को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को करना श्रेयकर है।इसे अग्न्याधेय भी कहते हैं।अग्नि कुंड, विधिपूर्वक बनाकर,होम,जप,तप करने के बाद,सन्यास रूप धारण कर, सत्संग शुरू कर, वेद वाणी सुनना और सुनाना,मृत्यु पर्यंत तक करते रहना चाहिए।अर्थात उस परमपिता परमेश्वर में ध्यान लगाना चाहिए।

भारतीय संस्कृति - सभ्यता

 समय बीतता गया , आज से 11000 साल ईसा पूर्व महा ऋषि ब्रह्मा जी के समय, मानव संस्कृति और सभ्यता का पूर्ण विकास हुआ।इस समय को सतयुग या कृत युग कहा गया। उस समय से आज तक के समय को उत्तरोत्तर हींन बल के आधार पर चार भागों में बांट कर ,सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग का नाम दिया गया।हर युग का समय 3000 साल और 2 युगो के संधिकाल को पांच सौ साल माना गया।।चरक संहिता।।

वैदिक धर्म

 वेद क्या है   -   परमपिता परमेश्वर की अनुकम्पा से, महा ऋषि बृह्मा जी ने,पूरे ब्रह्मांड का विशुद्ध ज्ञान यानी प्रमाणित ज्ञान, उपदेश के रूप में दिया। जिन का संकलन,उस समय के उनके चार शिष्यों,महऋषि अग्नि वायु आदित्य और अंगिरा ने, क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में किया।जो भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। ऋग्वेद में उस समय के शल्यविद्ध,सर्जरी में पारंगत दो भाइयों अश्वनी कुमारो की भूरी भूरी प्रशंसा की गई ।अश्वनी कुमार उस समय के ऋषि इंद्र देव के शिष्य थे।वेदों से, ज्ञान विज्ञान, शासन प्रशासन, कला संस्कृति, आहार-विहार, आचार विचार,जीवन मृत्यु,यज्ञ हवन, दान पुण्य, आत्मा परमात्मा आदि कोई विषय, अछूता नहीं रहा।

भारतीय संस्कृत -सभ्यता

 समय बीतता गया , आज से 11000 साल ईसा पूर्व महा ऋषि ब्रह्मा जी के समय, मानव संस्कृति और सभ्यता का पूर्ण विकास हुआ।इस समय को सतयुग या कृत युग कहा गया। उस समय से आज तक के समय को उत्तरोत्तर हींन बल के आधार पर चार भागों में बांट कर ,सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग का नाम दिया गया।हर युग का समय 3000 साल और 2 युगो के संधिकाल को पांच सौ साल माना गया।।चरक संहिता।।

मानव विकास

 आज से 2600000 साल पहले  प्लेस्टोसिनकाल में, यह विकास को प्राप्त हो ,अंतिम 125000 साल पहले पृथ्वी के अन्य महाद्वीप में फैल गया।इस प्राचीन मानव को निएंडरथल कहा गया,निएंडरथल जर्मन में एक जगह का नाम है।वह काल पाषाण युग कहलाया।। डॉ डार्विन।।

वेद क्या है

 वेद क्या है   -   परमपिता परमेश्वर की अनुकम्पा से, महा ऋषि बृह्मा जी ने,पूरे ब्रह्मांड का विशुद्ध ज्ञान यानी प्रमाणित ज्ञान, उपदेश के रूप में दिया। जिन का संकलन,उस समय के उनके चार शिष्यों,महऋषि अग्नि वायु आदित्य और अंगिरा ने, क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में किया।जो भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। ऋग्वेद में उस समय के शल्यविद्ध,सर्जरी में पारंगत दो भाइयों अश्वनी कुमारो की भूरी भूरी प्रशंसा की गई ।अश्वनी कुमार उस समय के ऋषि इंद्र देव के शिष्य थे।वेदों से, ज्ञान विज्ञान, शासन प्रशासन, कला संस्कृति, आहार-विहार, आचार विचार,जीवन मृत्यु,यज्ञ हवन, दान पुण्य, आत्मा परमात्मा आदि कोई विषय, अछूता नहीं रहा।

मानव का पुनर्जन्म,मानव योनि से ही होता है -

 क्या मानव से मानव ही होता है   - मृत्यु के बाद,मानव का मानव योनि से पुनर्जन्म होता है। चरक संहिता में,अग्निवेश ने,आत्रेय से पूछा-भगवान-क्या मानव से मानव ही होता है।लेकिन उस समय वो उत्तर नही दे सके। वो महर्षि भारद्वाज के पास पहुँचे।बोले -भगवन मेरी शंका समाधान करो,क्या मानव से मानव ही पैदा होता है।उन्होंने कहा -हाँ । प्रश्न -तो फिर लंगड़ा,लंगड़ा और काना,काना क्यों नही होता।उत्तर-हर जीव अपनी ही योनि में पैदा होकर अपने कर्मफल अनुसार,शरीर और फल(भाग्य) प्राप्त करता है। 2 -श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में उपदेश दिया -मानव मरता नही, सिर्फ दूसरा नया शरीर प्राप्त करता,भेड़िया नही बनता। 3 -प्रत्यक्ष में भी हम देखते-सुनते हैं कि फलां आदमी वहाँ पैदा हो गया।क्या इतने थोड़े समय मे वो 84 लाख योनि में घूम आया ! 4 -मानव सूक्ष्म शरीर(पृथ्वी,जल,तेजऔर वायु तन्मात्रा तथा मन और आत्मा ये 6 तत्व)यानि जीवात्मा यानि मानव बीज, से मानव ही होगा।

वाजीकरण क्या है

 वाजीकरण क्या है. -                                           महाफलवती रसायन तंत्र के पश्चात,दूसरा महत्व का तंत्र, यह आयुर्वेद के 8 प्रधान अंगों में से एक वाजीकरण तंत्र है। वाजी का अर्थ है शुक्रवान,दूसरा अर्थ घोड़ा तथा तीसरा अर्थ है पुरुष तत्व। तथा करण का एक ही अर्थ करना या बनाना है। अर्थात वाजीकरण का अर्थ है - पौरुष बल और शारीरिक बल को बढ़ाना। कामी अल्प शुक्र वाले, दुर्बल व्यक्तियों को नित्य वाजीकरण का प्रयोग करना चाहिए। स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा 8 गुनी रति की शक्ति होती है।सामान्य वाजीकरण द्रव्य जैसे- नवयौवन रूपवती स्त्री, सुंदर वातावरण, विदारीकंद, मैदा महामेधा, शतावर, असगंध,केवांच, गोखरू, मधुएष्टि, पिपली,पका आम, खजूर, सिंघाड़ा, दूध , मलाई,घी, सफेद मूसली, सालम पंजा, शिलाजीत ताम्र,लौह,स्वर्ण,अभ्र्क,वंग भस्म। केसर,जीरा,इलायची आदि। वाजीकरण योग  - अपत्य कर स्वरस-सिद्धि योग है,पुत्रप्रदत,वृद्धा अवस्था को युवा अवस्था जैसा महसूस होना।मदनानंद मोदक -श्रेष्ठ वृष्य एवं बा...

रसायन किसे कहते है

 रसायन किसे कहते हैं  -                रसायन(जिरियाट्रिक) का जो विशिष्ट उल्लेख आयुर्वेद में मिलता है वह अन्यत्र नहीं मिलता। रस =पारद अथवा स्वरस अथवा अन्न रस के परिपाक के अनंतर, बनने वाला रस। आयन = आवास अथवा मार्ग अथवा प्राप्ति। अर्थात प्रशस्त रस आदि धातुओं के शरीर को प्राप्त करने के उपाय को रसायन कहते हैं। जैसे देवताओं के लिए अमृत,सर्पों के लिए सुधा, वैसे ही प्राचीन काल में महा ऋषि यों के लिए रसायन का स्थान था।रसायन प्रयोग से पहले शरीर का शोधन आवश्यक है।रसायन,शरीर को स्वस्थ व रोगों को दूर करता है, दीर्घायु बनाता है , स्मृति शक्ति बढ़ाता है।रसायन द्रव्य  -                     1 -दिव्य औषधि - ब्रह्मी,सोम,सर्पा, अजा,सूर्यकांता आदि। 2 -मेध्य रसायन  - मैदा,महा मैदा,माशपर्णी, मधुएष्टि,मण्डूकपर्णी,गडूची,स्वर्ण ,लौह,वासा आदि। बल्य रसायन-  काले तिल,बिडंग, शतावरी, विदारीकंद,अश्वगंधा,बड़ी हरड़,मेदा, महामेदा, शिलाजीत गंधक,बला,अतिबला,ऐन्द्री, सिंघाड़ा,जीरा,कोंच के बीज,अभ्र्क भस्म,जी...

कुछ आवश्यक निर्देश

 कुछ आवश्यक निर्देश -                1  -तांबे के बर्तन में रखी खटाई एवं उबला जल,विष समान हो जाता है,लेकिन उसी में रखा ठंडा पानी अमृत समान गुणकारी है।क्योंकि यह ईकोलाई आदि जीवाणुओं को नष्ट करता है। 2  -गर्म किया मधु(शहद) का सेवन करना मृत्यु कारक है।उष्ण द्रव्यों के साथ या उष्ण काल में भी प्रयोग ना करें।सुबह,सूर्य निकलने से पहले प्रयोग करे। 3  -शहद, घी, नमक कभी भी समान मात्रा में मिलाकर प्रयोग न करें।विष बन जाता है। 4  -कभी भी मल- मूत्र के वेग को न रोके, खाना खाने के बाद मूत्र त्याग करें। पानी 1 घंटे बाद पीये। 5  -स्नान,खाली पेट खाना खाने से पहले करें। इससे अग्नि दीप्त,आयु बढ़ती है तथा थकावट दूर होती है। 6 -हार्ट फेल्योर की स्थिति में मरीज को एक तेज लाल मिर्च तुरंत चबाने को दे। 7 -लोंग, इलायची,अजवायन,गुड़  व यूकेलिप्टिस के ताजे पत्तो को कूटकर,चिलम में रखकर,धूम्र पान करने से ,दमे में जमा बलगम निकल जाएगा। 8 -शूगर(मधुमेह) में क्रेशर से लिये गए शीरे से चाय मीठी कर पीये।इन्सुलिन का काम करेगा और पैंक्रियाज मजबूत करता है।...

चिकित्सक के लिए आवश्यक सलाह

 चिकित्सक के लिए सलाह -           1 -चिकित्सक को अपने क्षेत्र में ज्ञान वर्धन के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये। 2 -चिकित्सक को चिकित्सा, सेवा भाव से करनी चाहिए,न कि पैसा या व्यवसाय के लिए।पैसा नही,तो दुआ तो मिलेगी।। 3 - चिकित्सक रोगी को सदा अपने परिवार का मान, प्रेम भाव से बिना किसी ईर्ष्या के चिकित्सा करें। 4  -विशेष रोग, और रोग की अवस्था अनुसार चिकित्सक को 24 घंटे चिकित्सा कार्य के लिए तैयार रहना चाहिए।। 5 -चिकित्सक रोगी की परीक्षा कर, देशकाल- प्रकृति-आयु-लिंग- शारीरिक बल-अबल देख, चिकित्सा करें।6- अगर रोगी स्त्री है तो, मासिक धर्म,स्तन्य काल,गर्भावस्था को ध्यान में रख, चिकित्सा करें। 7 -असाध्य रोग को,रोगी को न बता कर,परिजनों को बताये।अपने पास न रखे,अन्यथा अपयश मिलेगा। 8 -चिकित्सक दवाई के लेबल को अच्छी तरह पढ़, उसके कंटेन, एक्सपायरी डेट पर ध्यान दें। 9 -कौन औषधि, एक दूसरे से  मिलाकर, कितनी मात्रा में, किस मार्ग(मुहँ, नस, मांस,त्वचा,गुदा)से   देनी है, ध्यान रखे। 10 -इंजेक्शन लगाने के लिए सदा डिस्पोजल सिरिंज का ही प्रयोग करें, तथा र...

रोगी के लिए आवश्यक सलाह

 रोगी के लिए आवश्यक सलाह -   1 -भूलकर भी कभी झोलाछाप यानी बिना डिग्री के चिकित्सक से चिकित्सा कार्य न कराएं। 2 - पैसा और इलाज दोनों एक दूसरे के दुश्मन हैं अतः इलाज कराते समय पैसे का मोह त्याग दें।। 3 -चिकित्सक की सलाह से ही इलाज बंद करें अपनी इच्छा अनुसार दवाई लेने बन्द न करे। 4 -डॉक्टर से चिकित्सा कराते समय अनावश्यक चिकित्सा संबंधित बहस ना करें। 5अपना इलाज उसी डॉक्टर से कराएं जिस पर आप का पूर्ण विश्वास हो।। 6अगर संभव हो तो, अपने घर के बजाय डॉक्टर की क्लीनिक पर जाकर ही इलाज करायें।। 7 -चिकित्सक की हर सलाह को मानकर चलें, उसके प्रति लापरवाही न बरतें।। 8 - रोग की अधिक प्रतीक्षा न करें,यथा सम्भव,चिकित्सक के,चिकित्सा कार्य काल मे ही,चिकित्सा करायें।। 9 - चिकित्सक से कभी भी अपनी कोई बीमारी न छिपायें,न डरे न शर्माए, जो पूछा जाए बताएं। 10 -चिकित्सक से कोई पर्दा नहीं होता। कोई भी जांच बेहिचक  कराएं। 11 -चिकित्सक का सम्मान करें,शालीनता से अपनी समस्या रखे।चिकित्सक की बात ध्यान से सुने।

रोग क्या है,क्यों होते है

 रोग क्या है और क्यों होते हैं। -   शरीर में वात पित्त कफ की अ साम्य अवस्था ही रोग है और साम्यावस्था निरोग। मन में रोग की शंका भी रोग का कारण बन सकती है। प्राय सभी रोगों का निर्धारण, गर्भ में ही तय हो जाता है।गर्भ में माँ के शरीर से जो तत्व,गर्भ को कम मिलता है, उसी तत्व से बनने वाले गर्भ के अंग कमजोर रह जाते हैं जैसे कैल्शियम की कमी से हड्डी, चटपटे खाद्य पदार्थ की कमी से आंखों की रोशनी आदि अविकसित रह जाते हैं। जन्म के बाद उस कमी के औसत से ही भविष्य में वह अंग रोग ग्रस्त हो पूर्ण आयु से पहले ही मौत का कारण बन सकते हैं। मानसिक और शारीरिक दुर्बलता व संक्रमण आदि का कारण वही गर्भ की अपुष्टता बनती है। जैसे किसी भवन निर्माण में लोहा, सीमेंट, कंक्रीट आदि की कमी, उस मकान की आयु घटा देती है और अकाल में ही वह ढह जाता है, वैसे ही वह जीव भी अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है।अतः अगर रोगों से छुटकारा पाना है तो गर्भ  की इच्छा, जो मां की इच्छा से ही हमें ज्ञात होती है, उसकी पूर्ति बेहद आवश्यक है। अगर बच्चा किसी भी रोग से अल्पायु में मरणासन्न है तो उसकी मां से पूछा जाए,कि जिस समय यह बच्...

रोग कितने प्रकार के होते है

 रोग कितने प्रकार के होते हैं   - आयुर्वेद अनुसार वात पित्त कफ के अनुसार वात रोग 80, पित रोग 60,और कफ रोग 40, कुल 180 प्रकार के होते हैं।वात पित कफ रोगों में नब्ज(प्लस), इन त्रिदोष रोगों के अनुसार ही चलती है,कोई टेस्ट की जरूरत नहीं पड़ती। जरूरत है तो, आज आयुर्वेद में अनुसंधान की। डॉक्टर का अर्थ है रोग आदि का डायग्नोस(निदान) करना। एलोपैथ(आधुनिक)पद्धति के अनुसार, रोगो की कोई निश्चित संख्या नहीं है, क्योंकि यहाँ रोग के निदान के लिए दिमाग नहीं,मशीनरी काम करती है। यहां तो कभी-कभी रोग का निदान ही नहीं हो पाता। दिमाग से बड़ी कोई मशीन या कंप्यूटर नहीं होता।आज का चिकित्सक रोग ढूंढने में असमर्थ है। उसे नहीं पता इसे मलेरिया है या टाइफाइड ,वह तो बस पैथोलॉजी लैब आदि पर निर्भर है।रही शल्य चिकित्सा,आयुर्वेद में तो शरीर में हड्डी 300 बताई और आधुनिक यानि एलोपैथ में 206 तक ही पहुंचे।आयुर्वेद में अश्विनी कुमारों ने मानव क्लोन ही नहीं ,धड़ से अलग हुए सिर को जोड़ दिया।जो आज के चिकित्सक के लिए सम्भव ही नही।ये तो स्पाइनल कोर्ड के फ़्रैक्चर को भी नहीं जोड़ पाते।

आयु क्या है

 आयु क्या है। जीवन जीने के समय को आयु कहते है। हितकर आहार विहार से आयु बढ़ती है।अहितकर आहार-विहार से घटती है।जैसे बे मौसम फल फूल आना,अकाल माना जाता है।ऐसे ही ,बेमौसम यानि यौवन अवस्था में मृत्यु को भी अकाल मृत्यु कहते हैं।समय पर होने वाली मृत्यु , प्रौढ़ या वृद्धावस्था में,काल मृत्यु कहलाती है।

मानव शरीर

 मानव शरीर  -   अष्ट प्रकृति,16 विकार,और आत्मा।इन 25 तत्वों के संयोग को शरीर कहा गया।। सांख्यं शास्त्र।।अष्ट प्रकृति   -  (1-मूल प्रकृति, 2महान (बुद्धि तत्व ) ३ - अहंकार,4-शब्द तन्मात्रा,5-रूप तन्मात्रा, 6-रस तन्मात्रा, 7-गंध तन्मात्रा,८-स्पर्श तन्मात्रा)। सौलह विकार  -[( पांच ज्ञानेंद्रियां (sensory nervous system) -   (1-आंख , 2-नाक,3-कान, 4-जिव्हा और ५-त्वचा) पांच कर्मेंद्रियां  -  (1-हस्त,2-पाद, 3-गुदा 4 -लिंग और ५- वाणी)।पांच महाभूत   - (1-पृथ्वी, 2 -जल, 3-वायु, ४-अग्नि और ५-आकाश )। मन (motor nervous system)   -  जो एक और अणु(सूक्ष्म) है।इन्द्रियों में ही ग्यारहवीं इंद्री, मन है। एक काल में अनेक कार्य नहीं होते अतः मन एक है।क्षण भर में इधर से उधर पहुंच जाता है। मन - गुण अवगुण,सुख दुख का ज्ञान कराता है।सत्व (विशुद्ध), रजः(राग ),तम(मोह) मन के स्वभाव है ।ज्ञान होना और ना होना मन का लक्षण है। इंद्रियों को अपने वश में रखना और अपने को भी नियमित रखना मन का कार्य है। इन्द्रियों द्वारा विषयों का स्वरूप मात्...

एलोपैथी क्या है

 एलोपैथिक क्या है। -                         एलोपैथी के प्रवर्तक डॉक्टर महात्मा डॉ हिपोक्रेटिस का जन्म आज से 2500 वर्ष पूर्व हुआ ।और आज से 1700 वर्ष पूर्व डॉक्टर गैलन ने इसी सिद्धांत को प्रचलित किया।इस पद्धति को एलोपैथी: नाम डॉ हैनिमैन ने हीं दिया। डॉ हैनिमैन एम.डी. ने, एलोपैथिक डॉक्टर होते हुए,इसके विपरीत सिद्धांत की होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया। रोग के समान लक्षणों युक्त औषधि यानि Allos = diffrent + Pathos =Diseases. = Allopethy. नाम भी डॉ हैनिमैन ने ही दिया। इस पद्धति में दवाई ठोस रूप में प्रयोग की जाती है। लेकिन होम्योपैथिक में,रोग के समान गुण वाली दवाई को शक्ति कृत कर, प्रयोग करते हैं।ब्रिटिश फार्मोकॉपिया, बी.पी. का प्रकाशन 1864 ईसवी में, तथा नवीनतम 1958 में हुआ।। सबसे पुरानी आयुर्वेद पद्धति, जिसका स्रोत अथर्व वेद और ऋग्वेद माना जाता है, इसी से एलोपैथ का जन्म हुआ। भारत से यह पद्धति ग्रीक, फ्रांस और फिर ब्रिटेन तक पहुंची। यहां इसका रूप बदल अपने तरीके से प्रयोग में लाया जाने लगा ।एलोपैथ में प्राकृत ...

क्या है होम्योपैथिक

 क्या है होम्योपैथिक   -              होम्योपैथ के प्रवर्तक , डॉ हैनिमैन एमडी एलोपैथ, जिनका जन्म 10 अप्रैल 1755 और शादी 1782 में हुई। इनका जन्म स्थल जर्मन का एक नगर मेसन रहा। इनकी मृत्यु 24 मार्च 1843 ईस्वी में हुई।इन्होंने हमें एक सिद्धांत दिया -  समः सम शमयती यानि सदृश विधान ,अर्थात लोहे को लोहा ही काटता है। विषस्य विषमौषधम् यानि जहर ही जहर को खत्म करता है । ग्रीक शब्द -होम्योज=  समानता, पैथोज= बीमारी। अर्थात बीमारी के समान गुणों वाली similar not same. जब बहुत छोटी ठीक-ठीक मात्रा में जब शरीर में पहुंचती है तो परमाणु रूप में औषधि कोशिकाओं के गुणसूत्र,यानिजीवनी शक्ति यानी सूक्ष्म शरीर पर रोक के समान लक्षणों को प्रकट कर,उस रोग के प्रति उदासीन उस जींस को,उन लक्षणों के प्रति, सक्रिय कर ,उस रोग को नष्ट करने के लिए, रोग प्रतिरोधक क्षमता ( एंटीबॉडीज) बनाकर,रोग को शरीर से ही नष्ट करा देती है।दवाई ,शक्तिकृत यानि पोटेन्सी में होती है।तभी वह अणु रूप में होने के कारण,रोग को न बढ़ा कर,रोग का झूठा दिखावा कर, शरीर को रोग के के प्रति सचेत करती...

कहाँ से आया आयुर्वेद

 कहाँ से आया आयुर्वेद  -          आज से 11000 वर्ष ईसा पूर्व,महर्षि ब्रह्मा जी ने चार वेदों की रचना में, आयु का ज्ञान कराने वाले आयुर्वेद का विस्तृत और विशुद्ध ज्ञान कराया। जो क्रमशः इंद्र,अश्विनी कुमारों, धनवंतरी, भारद्वाज, सुश्रुत, और चरक आदि द्वारा हमें प्राप्त हुआ। शरीर रचना-क्रिया और चिकित्सा आदि का, शुद्ध, प्रमाणित और विस्तृत ज्ञान कराया। शल्य चिकित्सक अश्विनी कुमारों ने तो, आज की न्यूरोपैथी को भी धक्का दे, धड़ से अलग सिर का प्रतारोपण तक कर दिखाया। आयुर्वेद का 3 सूत्र- वात- पित्त- कफ, पंचकर्म, सिरा वेध, वाजीकरण, रस-रसायन और पुंसवन संस्कार तथा पुनर्जन्म का ज्ञान, हमें और कहीं नहीं, आयुर्वेद में ही मिलता है।आयुर्वेद चिकित्सा में,प्रकृति की प्राकृत औषधियों का प्रयोग होता है,जो कोई दुष्परिणाम नही दिखती।और यही सभी चिकित्सा पद्धति का जनक है। अगर आयुर्वेद न होता तो एलोपैथ, होम्योपैथिक,बायोकॉम्बिनेशन आदि, कोई भी नहीं होता।सभी ने इसी को तोड़- मरोड़ा कर,अपना अलग अस्तित्व बनाया।

भाग्य क्या है

 भाग्य क्या है  -                          भाग्य यानि पूर्व जन्म में किये शुभ अशुभ कर्म।पूर्व जन्म के गुण-दोष,अगले जन्म में लेकर जाता है। दूसरे जन्म में किए शुभ-अशुभ कर्तव्य से, भाग्य बदला जा सकता है। पूर्व जन्म और इस जन्म के पाप और पुण्य के आधार पर ही आयु कम या अधिक यानि काल- अकाल मृत्यु या सुखी- दुखी जीवन होता है। अर्थात दोनों जन्म का लेखा-जोखा ही आयु को निश्चित करता है। यानि पूर्व जन्म के पाप या पुण्य कर्म को, इस जन्म में किए पाप या पुण्य कर्म, हीन या सबल कर देते हैं,और आयु कम या अधिक होती है।

पुनर्जन्म क्या है

 पुनर्जन्म क्या है. -                शुक्र - शोणित(ova) के सयोंग के समय, सूक्ष्म शरीर में क्रियाशील मन के कारण,आत्मा युक्त सूक्ष्म शरीर,गर्भ में प्रवेश कर, गर्भ धारण कराता है।बिना सूक्ष्म शरीर के, शुक्र-शोणित से गर्भाधान संभव नहीं है। मानव का सूक्ष्म शरीर यानि मानव बीज या जीवात्मा, मानव के ही गर्भ में,ऊंच-नीच योनि (गर्भाशय) में गर्भाधान कराता है,अन्य में नहीं। मृत्यु के बाद मानव का मानव की योनि से ही जन्म होता है।।महा ऋषि भारद्वाज।। 8400000 योनि में भृमण का अर्थ है, 84 लाख बार, योनि से, अपने कर्म फल अनुसार मानव जन्म लेना। श्री कृष्ण जी ने भी, गीता में उपदेश दिया कि मनुष्य मृत्यु के बाद नया मानव जीवन प्राप्त करता है।। किसी भी विषय की सत्यता को जानने के लिए 4 प्रमाण पर खरा होना होता है। 1  - आप्तोपदेश - (ऋषि-महाऋषियों का कथन)  यानी पुनर्जन्म का उल्लेख वेदों में होना। 2 - प्रत्यक्ष प्रमाण -  पैदा होते ही, बिना शिक्षा दिए, बच्चे का रोना-  हंसना,डरना, भूख प्यास में चुचुक ही ढूंढना,बुद्धि में विषमता होना व पूर्व जन्म की बातें कर...

सूक्ष्म शरीर क्या है

 सूक्ष्म शरीर (सूक्ष्म क्रोमोसोम) -                    लिंग शरीर या जीवात्मा या शरीर का बीज या सूक्ष्म शरीर, आकाश को छोड़,क्योंकि आकाश क्रिया शून्य है, बाकी चार सूक्ष्म महाभूत -  पृथ्वी, जल, तेज, वायु तन मात्रा तथा मन, जो नाना योनि में गमन करता है और आत्मा, ये 6 तत्व मृत शरीर से निकलकर हित अहित कर्म फल अनुसार , शुक्र -शोणित से मिलकर, पुनर्जन्म कराते है। तभी तो सात्विक अवस्था यानि बचपन में कुछ बच्चों को(करीब 5 वर्ष से पूर्व)पूर्व जन्म का ज्ञान रहता है। यह सूक्ष्म शरीर तुरंत या अधिक से अधिक 12 दिन में दूसरा जन्म ले लेता है। इन बाहर दिन मैं वह न भटकता फिरता न वह किसी अन्य देह में प्रवेश कर सकता है,न वह दिखाई देता और न वह किसी को डरा धमका सकता और न वह दान दक्षिणा का मोहताज, वह तो सिर्फ और सिर्फ पुनर्जन्म या मोक्ष प्राप्त करा सकता है। भ्रम, भय और भूत यह सब मानसिक बीमारी है,न कि आत्मा या प्रेत आत्मा का खेल। मानव बीज या सूक्ष्म शरीर या जीवात्मा,अपने पूर्व जन्म में किए कर्मों के अनुसार नीच या उत्तम, मानव योनि में ही, दुबारा जन्म लेता ह...

मृत्यु क्या है

 मृत्यु क्या है। -                              मृत्यु का समय निश्चित नहीं होता ।हितकर,आहार- विहार से निरोग रहते हुए,पूर्ण आयु 80-100 वर्ष प्राप्त कर, मृत्यु होने को काल मृत्यु और अहितकर आहार-विहार से अकाल (समय से पहले)मृत्यु होती है। यानी औसत आयु तक न पहुंचना। महा ऋषि आत्रेय।। सतयुग में आयु 400 वर्ष, त्रेता में 300 वर्ष, द्वापर में 200 वर्ष और कलयुग में मानव आयु 100 वर्ष मानी गई है।।महर्षि चरक।।जन्म या मृत्यु में असहनीय दर्द नहीं होता।सामान्य से असहनीय दर्द होने से पहले ही,शरीर बेसुध (निश्चेतन) हो जाता है। और प्राण (जीवात्मा)निकलने का पता ही नहीं चलता।

अंतेष्टि संस्कार

 16  - अंत्येष्टि संस्कार यानी दाह संस्कार   -                            यह कर्म मनुष्य जीवन के अंतिम संस्कार के रूप में किया जाता है।मरणासन्न व्यक्ति को सांत्वना देते हुए, गीता उपदेश सुनाएं, तथा कुछ दान,अन्न आदि, मरणासन्न व्यक्ति के हाथों से करा दें और पृथ्वी को साफ कर गोबर से लीप, कंबल आदि बिछाकर दक्षिण दिशा को कर मिटा दें,जब प्राण छोड़ने लगे तो,सिर उत्तर व पैर दक्षिण को करें।मृतक के आंख कान नाक में घृत डाल दे। फिर स्नान कराकर शुद्ध कपड़े, जो ससुराल से आए पहले उन्हें पहनाये। 24 या 6 पिंड,जौ आटे में, तिल गुड़ शक्कर मिलाकर बनाए।शव के इधर-उधर या छाती पर रखें। विश्राम स्थान तक मृतक का सिर पीछे, वहां से अर्थी घुमा कर सिर आगे और पैर पीछे कर देते हैं। श्मशान में चिता के लिए भूमि साफ कर गंगाजल छिड़के। चिता पर सभी कपड़े उतार कर एक कपड़ा रखें। चिता पर मृतक को सिर दक्षिण व पैर उत्तर को करें।चार समिधाएं चिता के चारो और वेदी के प्रतीक रूप में रखी जाती हैं। जली अस्थियां को दूध से धोकर तीसरे दिन गंगा में प्रवा...

आवस्थया धान संस्कार

 14  - आवस्थया धान संस्कार (वानप्रस्थ आश्रम) जब जेष्ठ पुत्र 50 वर्ष के लगभग हो जाए तो पति- पत्नी, अग्नि को साक्षी मानते हुए, वेदों का उच्चारण कर, ब्रह्मा की स्तुति करते हुए, समाज सेवा में लग जाना चाहिए।

विवाह संस्कार

 13  -  विवाह संस्कार   -        बृह्मचर्य आश्रम के बाद,विवाह एक सामाजिक आवश्यकता है।18 से 25 वर्ष की आयु विवाह के लिए प्रशस्त मानी जाती है।यानी लड़की 18 वर्ष तथा लड़का 25 वर्ष आयु का होना चाहिए।

30 अनमोल वचन

 30 अनमोल वचन   -                             1 -ईश्वर अनादि, अव्यक्त, नित्य, ज्ञानी, एक और सर्वशक्तिमान है  2 -आत्मा अनादि, अव्यक्त, व्यापक, और चेतना देने वाली है। जो परमात्मा का ही प्रकाश या प्रभाव है।  3 -मनुष्य स्वयं कर्मों से अपने भाग्य को बनाता है।।  4 -जो सत्य है उसे निर्भीक होकर   कहो।।  5 -अहंकार और बहम जीवन को नरक बना देते हैं।।  6 -ईर्ष्या मानव को अंदर ही अंदर  गला देती है, पथभ्रष्ट करती है। 7-हिंसा मत करो पलटवार करती है।।  8 -सज्जन लोगों का साथ सदा सज्जनता का स्रोत है।।  9 -जो संतुष्ट है वही धनवान है। 10 -जिनके पास ज्ञान है वह भविष्यवाणी नहीं करते।। 11 -जो अपनी ही बात पर जोर देते हैं उसे कम ही लोग समर्थन देने देते हैं।। किसी पर अपनी बात थोपो नहीं। 12 -अगर आप ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं,तो किसी न किसी माध्यम से, हर दिन सीखो।।  13 - जब तक जियो सीखने की इच्छा रखो।  14 -जब तक आपके सामने कोई समस्या न आए तो समझो हम कुछ नहीं कर रहे।...

महर्षि बृह्मा जी का समय

 समय बीतता गया , आज से 11000 साल ईसा पूर्व महा ऋषि ब्रह्मा जी के समय, मानव संस्कृति और सभ्यता का पूर्ण विकास हुआ।इस समय को सतयुग या कृत युग कहा गया। उस समय से आज तक के समय को उत्तरोत्तर हींन बल के आधार पर चार भागों में बांट कर ,सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग का नाम दिया गया।हर युग का समय 3000 साल और 2 युगो के संधिकाल को पांच सौ साल माना गया।।चरक संहिता।।